!!!-: वेद-परिचय :---!!!

सामवेदः--- ---------------
चारों वेदों में सामवेद का महत्त्व सर्वाधिक है।
यजुर्वेद ने सामवेद को "प्राणतत्त्व" कहा हैः--साम प्राणं प्रपद्ये" (यजुः 36.1) "प्राणो वै साम" (श.प.ब्रा. 14.8.14.3) "स यः प्राणस्तत् साम" (जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण--4.23.3) 

सामवेद सूर्य का प्रतिनिधि है, अतः उसमें सौर-ऊर्जा है। जैसे सूर्य सर्वत्र समभाव से विद्यमान है, वैसे सामवेद भी समत्व के कारण सर्वत्र उपलब्ध है। सम का ही भावार्थक साम हैः---"तद्यद् एष (आदित्यः) सर्वैर्लोकैः समः तस्मादेषः (आदित्यः) एव साम।" (जै.उप.ब्रा.-1.12.5)

सामवेद सूर्य है और सामवेद के मन्त्र सूर्य की किरणें हैं, अर्थात् सामवेद से सौर-ऊर्जा मनुष्य को प्राप्त होती हैः---"(आदित्यस्य) अर्चिः सामानि" (श.प.ब्रा. 10.5.1.5) 

सामवेद में साम (गीति) द्युलोक है और ऋक् पृथिवी हैः--"साम वा असौ (द्युः) लोकः ऋगयम् (भूलोकः)" (ताण्ड्य ब्रा.4.3.5)

सभी वेदों का सार सामवेद ही हैः--"सर्वेषां वा एष वेदानां रसो यत् साम" (श.प.ब्रा. 12.8.3.23 और गो.ब्रा. 2.5.7)

साम के बिना यज्ञ अपूर्ण हैः---"नासामा यज्ञोsस्ति" (श.प.ब्रा. 1.4.1.1)

सामवेद के दो मुख्य भाग हैं---(1.) पूर्वार्चिक और (2.) उत्तरार्चिक। "आर्चिक" का अर्थ हैः--ऋचाओं का समूह।

(1.) पूर्वार्चिकः-- -----------------
इसमें चार काण्ड हैं---(क) आग्नेय-काण्ड, (ख) ऐन्द्र-काण्ड, (ग) पावमान-काण्ड, और (घ) अरण्य-काण्ड। इसमें एक परिशिष्ट भी हैः--महानाम्नी आर्चिक। पूर्वार्चिक में 6 अध्याय है। इन 6 अध्यायों को खण्डित किया गया है, जिन्हें "दशति" कह जाता है। दशति का अर्थ दश ऋचाएँ हैं, परन्तु सर्वत्र 10 ऋचाएँ नहीं है, कहीं अधिक कहीं कम है। 

(1.) अध्याय 1 आग्नेय-काण्ड है। इसमें 114 मन्त्र हैं। इसके देवता अग्नि है। 
(2.) अध्याय 2 से 4 तक ऐन्द्र-काण्ड हैं। इसमें 352 मन्त्र हैं। इसके देवता इन्द्र है।

(3.) अध्याय 5 पावमान-काण्ड है। इसमें कुल 119 मन्त्र हैं। इसके देवता सोम है।

(4.) अध्याय 6 अरण्य-काण्ड है। इसमें कुल 55 मन्त्र हैं। इसके देवता इन्द्र, अग्नि और सोम है। 

इसमें एक परिशिष्ट "महानाम्नी आर्चिक" है। इसमें 10 मन्त्र है। 

इस प्रकार पूर्वार्चिक में कुल 650 मन्त्र हैं। 

अध्याय 1 से 5 तक की ऋचाओं को "ग्राम-गान" कहा जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि इसकी ऋचाओं का गान गाँवों में किया जाता था। अध्याय 6 अरण्य-काण्ड है। इसकी ऋचाओं का गान अरण्य (वन) में किया जाता था। 

(2.) उत्तरार्चिकः--- -------------------------
इसमें कुल 21 अध्याय हैं और 9 प्रपाठक हैं। इसमें कुल 400 सूक्त हैं। इसमें कुल 1225 मन्त्र हैं। दोनों को मिलाकर 650 और 1225 को मिलाकर सामवेद में कुल 1875 मन्त्र हैं।

ऋग्वेद के 1771 मन्त्र सामवेद में पुनः आएँ हैं। अतः सामवेद के अपने मन्त्र केवल 104 ही है। ऋग्वेद के 1771 मन्त्रों में से 267 मन्त्र सामवेद में पुनरुक्त हैं। सामवेद के 104 मन्त्रों में से भी 5 मन्त्र पुनरुक्त हैं। इस प्रकार सामवेद में कुल पुनरुक्त मन्त्र 272 हैं। इस प्रकार सामवेद के अपने मन्त्र 99 ही हैं। 

शतपथ-ब्राह्मण के अनुसार सामवेद में एक लाख चौवालिस हजार अक्षर हैं---"चत्वारि बृहतीसहस्राणि साम्नाम्।" (श.प.ब्रा. 10.4.2.24)

सामवेद के ऋत्विक् उद्गाता हैं। इसके मुख्य ऋषि आदित्य हैं।

सामवेद की शाखाएँ--- --------------------------
मुनि पतञ्जलि के अनुसार सामवेद की 1000 शाखाएँ हैं---"सहस्रवर्त्मा सामवेदः" (महाभाष्य, पस्पशाह्निक) इन 1000 शाखाओं में 13 नाम इस समय उपलब्ध हैं---

(1.) राणायम (राणायनि) , (2.) शाट्यमुग्र्य (सात्यमुग्रि),
(3.) व्यास,, (4.) भागुरि,, (5.) औलुण्डी,, (6.) गौल्गुलवि,,
(7.) भानुमान् औपमन्यव,, (8.) काराटि (दाराल),,,
(9.) मशक गार्ग्य (गार्ग्य सावर्णि),,(10.) वार्षगव्य (वार्षगण्य),,
(11.) कुथुम (कुथुमि, कौथुमि),, (12.) शालिहोत्र, (13.) जैमिनि।

इन 13 शाखाओं के नामों में से सम्प्रति 3 शाखाएँ ही उपलब्ध हैं---(1.) कौथुमीय, (2.) राणायनीय और (3.) जैमिनीय।

सामवेद का अध्ययन ऋषि व्यास ने अपने शिष्य जैमिनि को कराया था। जैमिनि ने अपने पुत्र सुमन्तु को, सुमन्तु ने सुन्वान् को और सुन्वान् ने अपने पुत्र सुकर्मा को सामवेद पढाया। सामवेद का सर्वाधिक प्रचार-प्रसार व विस्तार सुकर्मा ने ही किया था। सुकर्मा के दो शिष्य थे---(क) हिरण्यनाभ कौशल्य और (ख) पौष्यञ्जि। इनमें हिरण्यनाभ का शिष्य कृत था। कृत ने एक महान् काम किया था। उसने सामवेद के 24 प्रकार के गान-स्वरों का प्रवर्तन किया। इसलिए उसके कई अनुयायी व शिष्य हुए। उनके शिष्य "कार्त" कहलाए। आज भी कार्त आचार्य पाये जाते हैं।

(1.) कौथुमीय (कौथुम) शाखाः-- ---------------------------------
यह शाखा सम्प्रति सम्पूर्ण भारत में प्रचलित है। कौथुमीय और राणायमीय शाखा दोनों में विशेष भेद नहीं है। दोनों में केवल गणना-पद्धति का अन्तर है। कौथुमीय-शाखा का विभाजन अध्याय, खण्ड और मन्त्र के रूप में है। राणायनीय-शाखा का विभाजन प्रपाठक, अर्धप्रपाठक, दशति और मन्त्र के रूप में है। कौथुमीय-संहिता में कुल 1875 मन्त्र हैं।

इस संहिता सूत्र "पुष्पसूत्र" है। इसका ब्राह्मण "ताण्ड्य-महाब्राह्मण" है। इसे पञ्चविंश-ब्राह्मण भी कहा जाता है। इसमें कुल 25 अध्याय हैं, इसलिए इसका यह नाम पडा। इसका उपनिषद् "छान्दोग्योपनिषद्" है। 

(2.) राणायनीय-शाखाः-- ------------------------
इस शाखा में विभाजन प्रपाठक, अर्धप्रपाठक, दशति और मन्त्र के रूप में हैं। इसकी एक शाखा सात्यमुग्रि है। इस शाखा का प्रचार दक्षिण भारत में सर्वाधिक है।

(3.) जैमिनीय-शाखाः--- -------------------------
इस संहिता में कुल 1687 मन्त्र हैं। इसकी अवान्तर शाखा तवलकार है। इस शाखा से सम्बद्ध केनोपनिषद् है। तवलकार जैमिनि ऋषि के शिष्य थे।

सामवेद मुख्य रूप से उपासना का वेद है। इसमें मुख्य रूप से इन्द्र, अग्नि और सोम देवों की स्तुति की गई है। इसमें सोम और पवमान से सम्बद्ध मन्त्र सर्वाधिक है। सोम, सोमरस, देवता और परमात्मा का भी प्रतीक है। सोम से सौम्य की प्राप्ति होती है। सामगान भक्ति-भावना और श्रद्धा जागृत करने के लिए है।

स्वरः--- ---------------
सामवेद के मन्त्रों के ऊपर 1,2,3 संख्या लिखी जाती है, जो 1--उदात्त, 2--स्वरित और 3---अनुदात्त की पहचान है। ऋग्वेद के मन्त्रों में उदात्त के लिए कोई चिह्न नहीं होता, किन्तु सामवेद में उदात्त के लिए मन्त्र के ऊपर 1 लिखा जाता है। ऋक् के मन्त्र पर स्वरित वाले वर्ण पर खडी लकीर होती है, इसके लिए सामवेद में 2 लिखा जाता है। ऋक् में अनुदात्त के लिए अक्षर के नीचे पडी लकीर होती है, सामवेद में इसके लिए वर्ण के ऊपर 3 लिखा जाता है।ऋग्वेद में उदात्त के बाद अनुदात्त को स्वरित हो जाता है और स्वरित का चिह्न होता है। स्वरित के बाद आने वाले अनुदात्त वर्ण पर कोई चिह्न नहीं होता। इसी प्रकार सामवेद में चिह्न 2 के बाद यदि कोई अनुदात्त वर्ण है तो उस पर कोई अंक नहीं होगा और उसे खाली छोड दिया जाता है। ऐसे रिक्त वर्ण को "प्रचय" कहा जाता है। इसका उसका एक स्वर से (एकश्रुति) न ऊँचा न नीचा किया जाता है। 

सात स्वर ये हैं---षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, धैवत और निषाद।

ग्राम तीन हैः---मन्द्र (निम्न), मध्य (मध्यम) और तीव्र (उच्च)।

सामवेद से सम्बद्ध नारदीय-शिक्षा है।

सामविकारः--- ---------------------
किसी भी ऋचा को गान का रूप देने के लिए कुछ परिवर्तन किए जाते हैं। इन्हें विकार कहा जाता है। ये कुल विकार 6 हैं। इनमें स्तोभ मुख्य है। ये छः विकार हैं---(क) स्तोभ, (ख) विकार, (ग) विश्लेषण, (घ) विकर्षण, (ङ) अभ्यास, (च) विराम।

सामगान के 4 भेदः--- ---------------------
(1.) ग्राम-गेय-गानः--इसे प्रकृतिगान और वेयगान भी कहा जाता है। यह गाँव में सार्वजनिक स्थलों पर गाया जाता था।

(2.) आरण्यगानः--इसे वनों में गाया जाता था। इसे रहस्यगान भी कहा जाता है। 

(3.) ऊहगानः--इसका अर्थ है विचार पूर्वक विन्यास करना। पूर्वार्चिक से सम्बन्धित उत्तार्चिक के मन्त्रों का गान इस विधि से किया जाता था। इसे सोमयाग व विशेष धार्मिक अवसर पर गाया जाता था। 

(4.) ऊह्य-गानः--इसे रहस्यगान भी कहा जाता है। रहस्यात्मक होने के कारण इसे साधारण लोगों में नहीं गाया जाता था। ऊहगान और ऊह्यगान विकार गान है।

शस्त्रः---
सामवेद में "शस्त्र" शब्द का प्रयोग किया है। इसका अभिप्राय है कि गान-रहित मन्त्रों के द्वारा सम्पादित स्तुति को "शस्त्र" कहा जाता है। इसी कारण ऋग्वेद के स्तुति-मन्त्र को "शस्त्र" कहा जाता है।

स्तोत्रः---
इसके विपरीत गान युक्त मन्त्रों द्वारा सम्पादित स्तुति को "स्तोत्र" कहा जाता है। सामवेद के मन्त्र "स्तोत्र" है, क्योंकि वे गेय हैं, जबकि ऋग्वेद के मन्त्र "शस्त्र" हैं।

स्तोमः--तृक् (तीन ऋचा वाले सूक्त) रूपी स्तोत्रों को जब आवृत्ति पूर्वक गान किया जाता है, तो "स्तोम" कहा जाता है।

विष्टुतिः---
विष्टुति का अर्थ है----विशेष प्रकार की स्तुति। विष्टुति स्तोत्र रूपी तृचों के द्वारा सम्पादित होती है। इसे गान के तीन पर्याय या क्रम समझना चाहिए। स्तोम के 9 भेद हैः--त्रिवृत् , पञ्चदश, सप्तदश, एकविंश, चतुर्विंश, त्रिणव, त्रयस्त्रिंश, चतुश्चत्वारिंश, अष्टचत्वारिंश।

सामगान की पाँच भक्तियाँ--
(1.) प्रस्ताव, (2.) उद्गीथ, (3.) प्रतिहार, (4.) उपद्रव और (5.) निधन। वरदराज का कहना है कि इन पाँचों में हिंकार और ओंकार जोड देने से 7 हो जाती हैं। इन मन्त्रों का गान तीन प्रकार के ऋत्विक् करते हैं---(1.) प्रस्तोता, (2.) उद्गाता और (3.) प्रतिहर्ता।

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