ईशावास्योपनिषद(Ishavasya Upanishad) भाग -एक






वह सच्चिदानंद  परब्रह्म  पुरुषोत्तम  सब प्रकार से सदा - सर्वदा  परिपूर्ण है।    यह जगत भी उस परब्रह्म से पूर्ण ही है ,क्योंकि यह उसी पूर्ण  पुरूषोत्तम से ही उतपन्न हुआ है।                                                                      विश्व में जो कुछ भी यह चरचरात्मक जगत तुम्हारे देखने -सुनने में आ रहा है सब -का -सब  सर्वाधार ,सर्वनियन्ता ,सर्वाधिपति ,सर्वशक्तिमान ,सर्वज्ञ  परमेश्वर से  व्याप्त है।                                                                                                                                                                                         ऐसा समझकर  उन परमेश्वर को निरंतर अपने साथ रखते हुए ,सदा -सर्वदा उनका स्मरण करते हुए तुम इस जगत में त्यागभाव से केवल कर्तव्यपालन के लिए ही  विषयो का यथा विधि उपभोग करो अर्थात  विश्वरूप ईश्वर की पूजा के लिए ही कर्मो का आचरण करो।  विषयो में मन को मत फसने दो ,यही कल्याण का मार्ग है।    ये भोग पदार्थ किसी के भी नहीं है।             

                                                                                                                                                           ऐसे शरीर को पाकर भी जो मनुष्य अपने कर्मसमुह को  विश्वरूप ईश्वर की पूजा के लिए समर्पण नहीं करते और कामोपभोग  को ही जीवन का का परम् ध्येय मानकर विषयो की आसक्ति और कामनावश जिस किसी प्रकार से भी केवल विषयो की प्राप्ति  और उनके यथेच्छ उपभोग में ही लगे रहते है ,वे आत्म -तत्व  की हत्या करने वाले ही है।  मनुष्य को अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिए ,अपना पतन नहीं करना चाहिए।     

वे परमेश्वर  अचल और एक है , तथापि मन  से भी अधिक तीव्र  वेगयुक्त हैं।     जहाँ तक मन की गति है ,वे उससे भी कहीं आगे  पहले से ही विद्यमान हैं।  मन तो वहां तक पहुँच भी नहीं  पाता।    वे सबके आदि और ज्ञानस्वरूप हैं अथवा सबके आदि होने के कारण सबको और सबकुछ पहले से ही जानते हैं

वे विश्वरूप परमेश्वर  चलते भी हैं और नहीं भी चलते ,एक ही काल में परस्परविरोधी भाव,गुण ,तथा क्रिया जिनमे रह सकती है ,वे ही परमेश्वर हैं।

वस्तुतः वे इस समस्त जगत के परम् आधार हैं और परम् कारण हैं। इसलिए बाहर भीतर सभी जगह से वे ही परिपूर्ण हैं।

इस प्रकार जो मनुष्य हर प्राणी को परब्रह्म परमात्मा में देखता है और सर्वान्तर्यामी परम् प्रभु परमात्मा को सब प्राणियों में देखता है ,वह  कैसे किसी से घृणा  कर  सकता है ?  वह मन ही मन सबको प्रणाम करता रहता है और सबको सुखी देखना चाहता है।

यह विश्व ही ईश्वरस्वरूप है अथवा ये कह सकते हैं  की  जो भी देखने सुनने और समझ में आता है वो सब का सब ईश्वर ही है  या फिर  सभी कुछ या यु कहे की समस्त ब्रह्माण्ड ही ईश्वरस्वरूप  ही है।     

                     

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