अरब में प्राचीन वैदिक संस्कृति


अरब में प्राचीन वैदिक संस्कृति थी अल्लाह और इस्लाम का अफवाह मुहम्मद ने 1400 साल पहले ही फैलाया था. प्रमाण आप भी देखिये--अपने मुसलमान दोस्तों को भी दिखाए, अरब के निवासी अपने पिछले 4000 साल के इतिहास को भूल चुके थे, और इस्लाम में इस काल को जिहालिया कहा गया है जिसका अर्थ है अन्धकार का युग, जिहालिया का युग मुहम्मद के अनुयाइयो द्वारा फैलाया झूठ है, मुहम्मद के कहने पर वहां के सभी पुस्तकालय, देवालय, विद्यालय जला दिए तो इन्हें कैसे पता चला की वहां पर इस्लाम से पहले जाहिलिया का युग था, असल में मुहम्मद जो की भविष्यपुराण के अनुसार राक्षस था, ने राजा भोज के स्वपन में आकर कहा था की आपका सनातन धर्म सर्वोत्तम है पर मैं उसे पुरे संसार से समेट कर उसे पैशाचिक दारुण धर्म में परिवर्तित कर दूंगा, और वहां के लोग लिंग्विछेदी, दढ़ियल बिना मुछ के, ऊँची आवाज में चिल्लाने वाले(अजान), व्यभाचारी, कामुक और लुटेरे होंगे, इसलिए ये जहाँ भी जाते है अराजकता फैला देते है, खुद मुस्लिम देश भी दुखी है, इनके जिहालिया के युग का भांडा शायर ओ ओकुल में फूटता है, जिसमे लबी-बिन-ए-अरव्तब-बिन-ए-तुरफा जी ने अरब में वैदिक संस्कृति को प्रमाणित किया है, “अया मुबारेकल अरज मुशैये नोंहा मिनार हिंदे। व अरादकल्लाह मज्जोनज्जे जिकरतुन।1। वह लवज्जलीयतुन ऐनाने सहबी अरवे अतुन जिकरा। वहाजेही योनज्जेलुर्ररसूल मिनल हिंदतुन।2। यकूलूनल्लाहः या अहलल अरज आलमीन फुल्लहुम। फत्तेबेऊ जिकरतुल वेद हुक्कुन मालन योनज्वेलतुन।3। वहोबा आलमुस्साम वल यजुरमिनल्लाहे तनजीलन। फऐ नोमा या अरवीयो मुत्तवअन योवसीरीयोनजातुन।4। जइसनैन हुमारिक अतर नासेहीन का-अ-खुबातुन। व असनात अलाऊढ़न व होवा मश-ए-रतुन।5।” अर्थात- (1) हे भारत की पुण्यभूमि (मिनार हिंदे) तू धन्य है, क्योंकि ईश्वर ने अपने ज्ञान के लिए तुझको चुना। (2) वह ईश्वर का ज्ञान प्रकाश, जो चार प्रकाश स्तम्भों के सदृश्य सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है, यह भारतवर्ष (हिंद तुन) में ऋषियों द्वारा चार रूप में प्रकट हुआ। (3) और परमात्मा समस्त संसार के मनुष्यों को आज्ञा देता है कि वेद, जो मेरे ज्ञान है, इनके अनुसार आचरण करो। (4) वह ज्ञान के भण्डार साम और यजुर है, जो ईश्वर ने प्रदान किये। इसलिए, हे मेरे भाइयों! इनको मानो, क्योंकि ये हमें मोक्ष का मार्ग बताते है। (5) और दो उनमें से रिक्, अतर (ऋग्वेद, अथर्ववेद) जो हमें भ्रातृत्व की शिक्षा देते है, और जो इनकी शरण में आ गया, वह कभी अन्धकार को प्राप्त नहीं होता। अरबी काव्य संग्रह ग्रंथ ‘ शायर-ए-ओकुल’ के 253वें पृष्ठ पर हजरत मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम की कविता है जिसमें उन्होंने हिन्दे यौमन एवं गबुल हिन्दू का प्रयोग बड़े आदर से किया है । ‘उमर-बिन-ए-हश्शाम’ की कविता नयी दिल्ली स्थित मन्दिर मार्ग पर श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर (बिड़ला मन्दिर) की वाटिका में यज्ञशाला के लाल पत्थर के स्तम्भ (खम्बे) पर काली स्याही से लिखी हुई है, जो इस प्रकार है - ” कफविनक जिकरा मिन उलुमिन तब असेक । कलुवन अमातातुल हवा व तजक्करू ।1। न तज खेरोहा उड़न एललवदए लिलवरा । वलुकएने जातल्लाहे औम असेरू ।2। व अहालोलहा अजहू अरानीमन महादेव ओ । मनोजेल इलमुद्दीन मीनहुम व सयत्तरू ।3। व सहबी वे याम फीम कामिल हिन्दे यौमन । व यकुलून न लातहजन फइन्नक तवज्जरू ।4। मअस्सयरे अरव्लाकन हसनन कुल्लहूम । नजुमुन अजा अत सुम्मा गबुल हिन्दू ।5। अर्थात् – (1) वह मनुष्य, जिसने सारा जीवन पाप व अधर्म में बिताया हो, काम, क्रोध में अपने यौवन को नष्ट किया हो। (2) अदि अन्त में उसको पश्चाताप हो और भलाई की ओर लौटना चाहे, तो क्या उसका कल्याण हो सकता है ? (3) एक बार भी सच्चे हृदय से वह महादेव जी की पूजा करे, तो धर्म-मार्ग में उच्च से उच्च पद को पा सकता है। (4) हे प्रभु ! मेरा समस्त जीवन लेकर केवल एक दिन भारत (हिंद) के निवास का दे दो, क्योंकि वहाँ पहुँचकर मनुष्य जीवन-मुक्त हो जाता है। (5) वहाँ की यात्रा से सारे शुभ कर्मो की प्राप्ति होती है, और आदर्श गुरूजनों (गबुल हिन्दू) का सत्संग मिलता है इसके बाद अरब में लगभग 400-600 ईसा पूर्व चक्रवर्ती महाराज चन्द्रगुप्त ने सनातन धर्म की स्थापना की, पर शको के आक्रमण के बाद यहाँ से भारत का नियंत्रण लगभग कट चूका था, अरब में तब घर घर में सनातनी देवी देवताओं की पूजा होती थी, शिक्षा के लिए विधिवत गुरुकुल थे, बड़े बड़े संग्रहालय और पुस्तकालय थे, वैदिक संस्कृति से ओतप्रोत अरब में चहुँ और सनातन धर्म का एकछत्र साम्राज्य था, इसी काम में शक्वाहन के नेतृत्व में पुन: अरब में सनातन संस्कृति की स्थापना हुई, महाभारत काल में कम्बोज के कुम्ब्ज राजा का वर्णन आता है, ठीक इसी प्रकार एक मितन्नी वंश का भी वर्णन आता है जो बाद में अरब की और पलायन कर गया था, अरब में लगभग 500 वर्ष तक मितन्नी वंश के राजाओं का शासन रहा जो की अहुर(असुर) वंश के थे, इनके नाम है: तुष्यरथ(दशरथ) असुर निराही II असुर दान I असुर नसिरपाल I असुर बानिपाल I 632 ईo के बाद यहाँ पर पैगम्बर मुहम्मद के रूप में इस्लाम की स्थापना हुई, इस्लाम की स्थापना के बाद अरब में व्यापक स्तर पर हिन्दुओ का नरसंहार हुआ, काबा में स्थित सभी मूर्तियों को मुहम्मद द्वारा तोड़ दिया गया, परन्तु इसके उपरान्त भी मुहम्मद ने काबा में हजरे-असवद नाम के एक काले पत्थर को वहां पर रहने दिया और आज हर मुसलमान हज के समय उसके दर्शन अवश्य करता है, असल में हजरे अस्वाद का हजरे हजर शब्द से बना है जो की हर का अपभ्रंश है, हर का अर्थ संस्कृत में शिव होता है और अस्वाद अश्वेत का ही अपभ्रंश है, चूँकि मुहम्मद के समय ये पत्थर सफ़ेद रंग का था जो की बाद में हज के समय आने वाले पापियों, दुराचारियो और व्यभाचारियो के द्वारा छुते रहने के कारण काला पड़ गया, मक्का में काबा में स्थित भगवान् शिव भी सोचते होंगे की प्रतिवर्ष हजारो पापी अपने पापो की क्षमा याचना के लिए मक्का में इस आशा से आते है की उस शिवलिंग को के दर्शन मात्र से उनके पाप मिट जायेंगे, यहाँ पर मुस्लीम बिना सिले २ कपडे लेते है एक पहन कर और दूसरा कंधे पर डाल कर काबा की घडी की उलटी दिशा में 7 परिक्रमा करते है, चूँकि मुहम्मद ने भविष्यपुराण के अनुसार पैशाचिक धर्म की स्थापना की थी, इसलिए नकारात्मक ऊर्जा को मुसलमानों में निरंतर भरे रखने के लिए वहां पर उलटी परिक्रमा का रिवाज रखा गया, अब इस्लाम पर थोडा और जानकारी, इस्लामिक मत के अनुसार क़यामत के बाद हजरत मूसा ने इस धरती को पुन: बसाया था, जिसकी कहानी कुछ कुछ मतस्य पुराण से मिलती है, मतस्य पुराण में प्रलय की कथा : मतस्य पुराण 11/38 ठीक इसी प्रकार इस्लाम का अर्धचन्द्र सनातन संस्कृति से लिया गया है, भगवान् शंकर की पूजा करने वाले अरब वासियों ने भगवान् शिव के मस्तक पर स्थित अर्धचन्द्र को इस्लाम में स्थान दिया, चुकी देखने वाले बात ये है की इस्लामिक शहादा के झंडे में और मुहम्मद के मक्का फतह के समय वाले झंडे में ऐसा कुछ नहीं है, ये केवल अन्य गैर अरबी देशो में है जो बाद में इस्लामिक देश बन गये. एकीश्वर का सिद्धांत भी सनातन धर्म से लिया गया है जहाँ पर देवी देवता और अवतार बहुत है पर इश्वर एक ही है, ॐ शिव, क्यूंकि शिव ही अजन्मा है, और जिस जमजम के कुएं की ये बात करते है एक शिवलिंग उसमे भी है जिसकी पूजा खजूर के पत्तो से होती है, इस प्रकार मक्का में एक नहीं, दो शिवलिंग है, अब बात आती है मक्का में एक और प्रमाणिक स्त्रोत की, सभी जानते है की भगवान् वामन ने बलि के 100 यज्ञो द्वारा इंद्र पद प्राप्त करने के प्रयास को विफल करते हुए उससे तीन पग भूमि ली और उसमे चराचर जगत को २ पग में नाप कर तीसरे पद में राजा बलि को भी अपने अधीन कर लिया, भगवान् वामन का ये तीसरा पग और कही नहीं, मक्का में ही पड़ा था, इसका प्रमाण है मक्का में काबा के ठीक बाहर रखा एक स्तम्भ, जो की इस्लामिक मान्यता के अनुसार अब्राहम का है. अन्य प्रमाण : जब मुहम्मद ने काबा और मक्का के पास स्थिति सभी सनातनी प्रमाणों को नष्ट कर दिया तब उसके बाद उसका पश्चाताप करने के लिए मुहम्मद ने विधिवत सनातन विधि से काबा में मंदिर की स्थापना की, इसका एक प्रमाण है काबा का अष्टकोणीय वास्तु, इसमें एक चतुर्भुज के ऊपर दूसरा चतुर्भुज टेढ़ा करके मंदिर स्थापना होती है और प्रत्येक सनातन मंदिर में यही विधान है.

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